बिल्लेसुर बकरिहा–(भाग 21)

कहकर गायत्री मन्त्र की आवृत्ति कर गये और सुनाकर चल दिये, फिर पैर भी नहीं छुए।


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बिल्लेसुर गाँव आये। 

अंटी में रुपये थे, होठों में मुसकान। 

गाँव के ज़मींदार, महाजन, पड़ोसी, सब की निगाह पर चढ़ गये––सबके अन्दाज़ लड़ने लगे––'कितना रुपया ले आया है।' 

लोगों के मन की मन्दाकिनी में अव्यक्त ध्वनि थी––बिल्लेसुर रुपयों से हाथ धोयें ! 

रात को लाठी के सहारे कच्चे मकान की छत पर चढ़कर, आँगन में उतरकर, रक्खा सामान और कपड़े लत्ते उठा ले जानेवाले चोर इस ताक में रहने लगे कि मौक़ा मिले तो हाथ मारें।

 एक दिन मन्सूबा गाँठकर त्रिलोचन मिले और अपनी शानवाली आँख खोलकर बड़े अपनाव से बिल्लेसुर से बातचीत करने लगे––"क्यों बिल्लेसुर,अब गाँव में रहने का इरादा है या फिर चले जाओगे?"

बिल्लेसुर त्रिलोचन के पिता तक का इतिहास कण्ठाग्र किये थे, सिर्फ़ हिन्दी के ब्लैंक वर्स के श्रेष्ठ कवि की तरह किसी सम्मेलन या घर की बैठक में आवृत्ति करके सुनाते न थे। 

मुस्कराते हुए नरमी से बोले––"भय्या, अब तो गाँव में रहने का इरादा है––बंगाल का पानी बड़ा लागन है।"

त्रिलोचन के तीसरे नेत्र में और चमक आ गई। 

एक क़दम बढ़ कर और निकट होते हुए, सामीप्यवाले भक्त के सहानुभूतिसूचक स्वर से बोले––"बड़ा अच्छा है, बड़ा अच्छा है। काम कौन-सा करोगे?"

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